दस हाथ नहीं मेरे, फिर भी मैं दुर्गा हूं।
आँगन में बिखरती जो हँसी है, मैं वो बेटी हूं।
रक्षाबंधन में जो भर दे प्यार, मैं वो बहन हूं।
दिल का हर दर्द जो बांटे, मैं वो दोस्त हूं।
आंखों में जिसके कई सपने हैं, मैं वो दुलहन हूं।
रसोई में जिसके स्वाद का विश्वास है, मैं वो अन्नपूर्णा हूं।
दफ़्तर का काम जिसकी तपस्या है, मैं वो सहकर्मी हूं।
हर सुख–दुख में जो साथ दे, मैं वो पत्नी हूं।
आंचल में जिसके सुकून है, मैं वो मां हूं।
कहानियों में जिसके खुशियां हैं, मैं वो नानी हूं।
डांट में जिसके दुनिया का सुख है, मैं वो दादी हूं।
मैं वो नारी हूं जो इस धरती की नींव है।
One response to “नारी”
वाह। बहुत अच्छा लिखा है।
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